जब भी रोकना चाहती हूँ अविरल जलधार को
आंसुओं का सैलाब उमड़ आता है
करना चाहती हूँ अनंत सब्र पर सब्र का बाँध टूट ही जाता है
जब जब भी आती है साहिल को तोडकर जलधार
हर बार मेरा पूरा अस्तित्व बह जाता है
मन की रेत पर बने सपनो के घरौंदों को पानी अपनी ठोकरों से तोड़ जाता है
हर बार टूटने के बाद जुड़ना कितना कठिन है
कोई यह कहाँ समझ पाता है.
Sunday, May 23, 2010
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