Thursday, December 20, 2012

यादें

यादें ये तुम्हारी यादें हैं या पॉलीथीन जो जलाए नहीं जलतीं गलाए नहीं गलतीं पैरों में उलझ जाएँ तो छुड़ाए नहीं छूटतीं. एक बार इन्हें जलाकर देखा जल कर बगूले बनकर उठीं ज़रूर पर, धुंआ बनकर मेरी ही आँखों में भर गईं और उन्हें जलाने लगीं आंसू बनकर निकलीं भी नहीं काजल बनकर मेरी आँखों में भर गईं और अपनी ही नज़र मुझे लगाने लगीं दोबारा इन्हें गलाने की कोशिश की गंगा में बहाया तो किनारे पर जाकर लग गईं यमुना में बहाया तो कीचड़ में सन कर रह गईं उनपर दलदल की काली परत चढ़ गई पर.... उन्होंने अपना वजूद बनाये रखा. न जलीं, न गलीं, न मिटीं मेरे ही पैरों में उलझकर वृत्ताकार घूर्णन करती रह गईं कई बार इन्हें अपने से अलग करने की कोशिश की पर एक पैर से छूटकर दूसरे पैर में चिपक गईं हवा में उड़ाया तो मेरे ही पीछे पड़ गईं मेरे साथ-साथ, मेरे ही आस -पास उड़ती रहीं अभी भी इनसे पीछा छुड़ाना चाहती हूँ पर......ये कमबख्त ऐसी यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़ती. - © मंजरी श्रीवास्तव

Saturday, August 11, 2012

नया चित्र / इसी बेनियाज़ी में

1.नया चित्र मैं तुम्हारा एक बहुत सुंदर चित्र बनाना चाहती थी लेकिन उससे पहले ही वक्त ने मेरे हाथ बांध दिये और काट दिये मेरे पंख अब मेरे सामने लेकर खड़ा है एक सुनहरा पिंजड़ा धीरे-से वह मुझे इस पिंजड़े में खींच लेता है पलक झपकते ही मैं पिंजड़े में और पिजड़ा जलती हुई ज्वाला के बीचोंबीच लेकिन यह पिंजड़ा और उसके चारों ओर की आग मुझे डरा नहीं पाती न ही जला पाती है मैं और ज्यादा निर्भीक, दुस्साहसी और तपकर खांटी सोने की तरह दुनिया के सामने आ रही हूं अपनी एक नयी दुनिया बनाने के लिए मैं निरंतर आग से खेल रही हूं अपनी इस भावी नयी दुनिया में मैं तुम्हें देखती हूं दूर... कहीं दूर... कहीं बहुत दूर..... तुम्हें छूने के लिए हाथ बढ़ाती हूं लेकिन छू नहीं पा रही मेरे हाथ तुम्हें छू पाने में असमर्थ हैं मेरे मुंह से लाल लपटें उठ रही होती हैं अब पिंजड़े की सलाखें पिघलने लगी हैं मैंने भस्म बनकर आकाश में एक पवित्र स्थान प्राप्त कर लिया है लेकिन अब भी वक्त का मन नहीं भरा वक्त मुझे कोहरे और धुएं से भरकर इसी रूप में धरती के चारों ओर के वातावरण में बिखरा देता है लेकिन अब मैंने ठान लिया है वक्त का यह उत्पीड़न लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं करूंगी वक्त से लोहा लूंगी ये बुरे बादल छंट जायेंगे नयी रोशनी बादलों को चीरकर बाहर आयेगी सूरज की किरणें और प्रखर हो जायेंगी फिर बारिश से दिन धुल जायेगा तुम मेरे पास होगे और मैं...मैं नयी रोशनी में तुम्हारा नया चित्र बनाऊंगी। 2.इसी बेनियाज़ी में एक इतना बड़ा ब्लैकहोल था पहले मेरे दिल में कि दुनिया की सारी गंदगी चली आती थी बेधड़क मेरे दिल में, मेरे जेहन में और हट गयी थी ओजोन की वह परत जो रोकती थी इन अल्ट्रावायलेट गंदगियों को मेरे दिल में, मेरे जेहन में आने से पर अब... अब मैंने कोशिश की है कि एक सेफ्टीवॉल्व लगा लूं दिल में कुछ-कुछ एक्वागार्ड की तरह का और कामयाब हो गयी हूं इसमें भी अब मेरे दिल में छनकर आते हो तुम आसमान से टपकती स्वच्छ बारिश की बूंद बनकर एकदम क्रिस्टल क्लियर बन जाते हो मिनरल वाटर से भी शुद्ध और साफ एकदम पारदर्शी अब छनकर आती है तुम्हारे नजरों की पाकीजा रोशनी और मैं अपने चेहरे पर रख लेती हूं तुम्हारी आंखें अपने होठों पर रख लेती हूं तुम्हारे होंठ अपने पूरे वजूद में समेट लेती हूं तुम्हारी उंगलियों के पोरों के स्पर्श में बसी जिंदगी और छानकर बाहर फेंक देता है यह सेफ्टीवॉल्व अतीत की बुरी यादों को तुम फैल जाते हो मेरे चेहरे पर ओस की नन्ही-नन्ही बूंदों की तरह और बंद कर लेना चाहते हो मेरी बेनियाजी को एक बोतल में ताकि मुझे और निखार कर और संवार कर बिखेर दो पूरे आसमान में और मैं बरस पड़ूं एक तराशी हुई सलीकेमंद बेनियाजी के साथ भिंगो दूं पूरी धरती को तुम्हारे पूरे वजूद कोअपनी इसी बेनियाजी में। © मंजरी श्रीवास्तव

Sunday, May 23, 2010

मंथन

तुम विशाल मंदराचल हो
अगणित रहस्योरत्न से परिपूर्ण कहीं अमृत तो कहीं हलाहल हो
मैं शेषनाग बनकर तुम्हारा मंथन करना चाहती हूँ
पिला सुधोपय स्वयं हलाहल पान करना चाहती हूँ
पर
तुम्हारे मंथन के क्रम में मैं स्वयं मथित हो जाती हूँ
घिसती चली जाती हूँ
अंततः तुम ही गरल का पान करके
मुझे पीयूषमय बनाके
हलाहल मुक्त करके, अमृतयुक्त करके
मेरा ही मंथन कर डालते हो
मेरे अंतर के उच्‍छवासोंको उद्घाटित कर डालते हो
तुम्हे समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है
क्यूंकि शायद तुम मंथर हो

टूटना

जब भी रोकना चाहती हूँ अविरल जलधार को
आंसुओं का सैलाब उमड़ आता है
करना चाहती हूँ अनंत सब्र पर सब्र का बाँध टूट ही जाता है

जब जब भी आती है साहिल को तोडकर जलधार
हर बार मेरा पूरा अस्तित्व बह जाता है
मन की रेत पर बने सपनो के घरौंदों को पानी अपनी ठोकरों से तोड़ जाता है

हर बार टूटने के बाद जुड़ना कितना कठिन है
कोई यह कहाँ समझ पाता है.

निष्कर्ष

सागर की लहरों की तरह पत्थरों से टकरा - टकरा कर मैं टूट रही हूँ और
निरंतर टूट रही हूँ
इस क्रम में अपनी ज़िन्दगी से भी रूठ रही हूँ
इस घुटन का जब चरमोत्कर्ष होगा
वही मेरे जीवन का निष्कर्ष होगा.

Sunday, April 25, 2010

कहीं इश्क तो नहीं

एक बेकरारी है जिसका दरया मुझे बहा ले जाना चाहता है ....
लहरें हैं जो जूनून में मुब्तला करती हैं...
ग़ालिब हैं जो इश्क की नाकाम उम्मीदें मेरे जागते बदन में जगा कर सो जाते हैं....
क्या है यह ....
कभी समझ नहीं पायी आज तक ...
कहीं इश्क तो नहीं....

मैं इति, तुम शुरुआत

चारों ओर रेत ही रेत जैसे नीचे मैं और मेरा मनं कि जैसे नीरस उजाड़ मरूस्थल
ऊपर तुम और तुम्हारा तन कि जैसे अनंत अछोर आकाश
फिर भी मैं तुम और तुम मैं
हैं न कितने पास पास ।

सपनो के महल बनाता मेरा मन और तत्क्षण उन्हें uda ले जाती तुम से मुझ तक पहुँचने वाली हवा
बालू के चक्रवातों में घिरी मैं पहुँचती तुम तक और तुम ....तुम मुझे वापस भेज देते धरती पर बारिश की बूंदों के साथ
तुम अनंत पर मेरा अंत, मैं इति तुम शुरुआत .... ।